एक तरफ भूखे मरते-भटकते बेजुबान तो दूसरी तरफ बेबस हैं किसान
किसान की नजर चूकी तो फसल सफाचट और सड़क पर वाहन सवार चूके तो जिंदगी को जोखिम
रीवा/ आवारा मवेशी यानी खेत-खलिहान से लेकर शहर की सड़कों तक दहशत का पर्याय। किसान की नजर चूकी तो फसल सफाचट और सड़क पर वाहन सवार चूके तो जिंदगी को जोखिम। लगातार बढ़ते आतंक से निजात के लिए अभी कुछ माह पूर्व ही लोगों ने कहीं स्कूलों में पशु कैद कर दिए तो कहीं पंचायत भवन में। इसके बाद शुरू हुई सियासत।मुद्दा उठा तो सरकार ने अस्थायी गोआश्रय स्थल बनाने की कवायद शुरू की लेकिन न होने का नतीजा है कि आधे-अधूरे गोआश्रय स्थल में पशु ठूंस दिए गए। कहीं बेजुबान भूखे मर गए तो कहीं आश्रयस्थल तोड़कर भाग निकले। इस व्यवस्था में बेजुबान खुले भटक रहे हैं और किसान से लेकर आम इंसान तक बेहाल हैं लेकिन सियासतदां सिर्फ सियासत ही कर रहे हैं। इन्हें न तो सरकारी मशीनरी को देखने की फुरसत है और न सियासी क्षत्रपों को, जो पशुओं पर सियासत करते आए हैं।जिले में आवारा पशुओं के कारण किसानों की खून-पसीने की कमाई प्रतिवर्ष 50 फीसद तक खेत पर ही खत्म हो जाती है। हरियाली की जगह वीरानगी होती है। किसान फसलें बचाने के लिए रतजगा करते हैं। वर्ष 2012 से 2014 के बीच भीषण सूखा पडऩे पर हालात बिगड़े। गांवों में आवारा जानवरों को लेकर शुरुआती दौर में गांवों में डुग्गी तक पिटती रही। वैसे, वर्ष 2001 के आसपास से आवारा पशुओं के संकट से किसान जूझने लगे थे। धीरे-धीरे यह बड़ी परेशानी के तौर पर सामने आये प्रतिवर्ष रीवा के हर जिले में औसतन कम से 40 से 50 लोग अपनी जान गंवाते हैं। जिलों में यह मुद्दा कभी सियासी लोगों के लिए गंभीर नहीं बन सका। हर बार लोकसभा व विधानसभा चुनाव में राजनेताओं ने एरा प्रथा से मुक्ति दिलाने की हुंकार भरी पर नतीजा अब तक सिफर है।

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